सोचता हूँ खाव्बों को कैसा लगता होगा
जब हम उन्हें देखते हैं,
वो भी कभी कभी बिना पलके झपकाए
क्या उन्हें उमीदें हो जाती हैं
हमसे ही पूरा होने की
क्या खवाब एक दूसरे से जलते भी होंगे
कि पहले तू कैसे पूरा हो गया,
शुरुआत तो मैंने पहले की थी
क्या इन खवाबों को भी दुख होता होगा,
जब कभी हम इन्हे
बीच रास्ते में ही भूल जाते हैं
क्या खवाबों के भी दिल टूटते होंगे
यूँ ही बिना आवाज़ के
क्या पसंद है इन खवाबों को
ज़्यादा होना या जित्ता भी होना,
पूरा होना ?
क्या वो खवाब आज भी हमारा इंतज़ार कर रहे
वो समोसे वाली दूकान पे ,कुल्हड़ वाली चाय के साथ
बचपन में जो हमने देखे थे वो स्कूल बस की खिड़की से ?