टूट गए कुछ सपने आज फिर
लौट के न आयी कुछ सांसें
हवाओं से पूछा गया,
पलक झपकी किसकी,
बता ज़िम्मेदार कौन
बुलंद रास्तों पे दौड़ती इंसानियत
अब क्या ज़िम्मेदारियों का बोझ है
दफ़न हो गयी क्या संवेदनाएं
दौड़ में क्या बस एक खुद की धौंस है
अपना कौन अब इस बढ़ रही दुनिया में
खुशियां क्यों कम हो रही हैं
अब अपनापन भी क्या एक
समाज और ज़िम्मेदारियों का बोझ है
आबाद कुछ पल ख्वाबों के
समेट रही क्या पूरी ज़िन्दगी का सुकून
डूबते सूरज की घुंघराली रौशनी
ज़िंदगी ख़त्म हो जाती क्या सूरज सजते ही
छुपा रही चेहरे की मुस्कान राज कुछ
तड़पती हलक में साँसों की हलचल
उदार है ज़िन्दगी फिर भी जीने को
कुछ मत कहो, चुप ही रहो
शायद दोष किसी का नहीं